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ता अ॑त्नत व॒युनं॑ वी॒रव॑क्षणं समा॒न्या वृ॒तया॒ विश्व॒मा रजः॑। अपो॒ अपा॑ची॒रप॑रा॒ अपे॑जते॒ प्र पूर्वा॑भिस्तिरते देव॒युर्जनः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā atnata vayunaṁ vīravakṣaṇaṁ samānyā vṛtayā viśvam ā rajaḥ | apo apācīr aparā apejate pra pūrvābhis tirate devayur janaḥ ||

पद पाठ

ताः। अ॒त्न॒त॒। व॒युन॑म्। वी॒रऽव॑क्षणम्। स॒मा॒न्या। वृ॒तया॑। विश्व॑म्। आ। रजः॑। अपो॒ इति॑। अपा॑चीः। अप॑राः। अप॑। ई॒ज॒ते॒। प्र। पूर्वा॑भिः। ति॒र॒ते॒। दे॒व॒ऽयुः। जनः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:48» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवयुः) विद्वानों की कामना करता हुआ (जनः) जन (वीरवक्षणम्) वीरों के पहुँचाने को (वयुनम्) कर्म वा प्रज्ञान को तथा (समान्या) तुल्य (वृतया) आवरण करनेवाली क्रिया से (विश्वम्) सम्पूर्ण (रजः) लोक-लोकान्तर और जिन (अपाचीः) नीचे चलनेवाले (अपराः) अन्य (अपः) जलों को (अप, ईजते) चलाता है वा (पूर्वाभिः) प्राचीन जलों से (प्र, तिरते) पार होता है (ताः) उन जलों को आप लोग (आ) सब ओर से (अत्नत) निरन्तर प्राप्त होओ ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोग विद्वानों के सङ्ग की कामना करते हुए सम्पूर्ण विद्याओं को ग्रहण कीजिए ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कार्य्यमित्याह ॥

अन्वय:

देवयुर्जनो वीरवक्षणं वयुनं समान्या वृतया विश्वं रजो या अपाचीरपरा अपो अपेजते पूर्वाभिः प्र तिरते ता यूयमाऽत्नत ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ताः) आपः (अत्नत) निरन्तरं गच्छत (वयुनम्) कर्म प्रज्ञानं वा (वीरवक्षणम्) वीराणां वहनम् (समान्या) तुल्यया (वृतया) आवरकया क्रियया (विश्वम्) समग्रम् (आ) (रजः) लोकलोकान्तरम् (अपो) (अपाचीः) या अधोऽञ्चन्ति (अपराः) अन्याः (अप) (ईजते) कम्पते (प्र) (पूर्वाभिः) (तिरते) (देवयुः) देवान् विदुषः कामयमानः (जनः) ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं विद्वत्सङ्गं कामयमाना विश्वा विद्या गृह्णीत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही विद्वानाच्या संगतीची कामना करत संपूर्ण विद्या प्राप्त करा. ॥ २ ॥